EXCLUSIVE: रंजन गोगोई का Final Judgement, अयोध्‍या मंदिर के फैसले पर कही बेबाक बात!

नई दिल्ली: देश के पूर्व CJI और अयोध्या के श्रीराम मंदिर पर ऐतिहासिक फैसला देने वाले राज्य सभा सांसद जस्टिस रंजन गोगोई फिर चर्चा में हैं. इसकी वजह उनकी लिखी ऑटोबायोग्राफी ‘Justice for the Judge’ है. इसमें उन्होंने अयोध्या पर फैसले, न्यायपालिका, यौन शोषण और सरकार से रिश्तों के बारे में कई बातें खुलकर लिखी हैं. Zee News के एडिटर इन चीफ सुधीर चौधरी ने जस्टिस गोगोई का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू लिया. वह इंटरव्यू आज रात 8 बजे Zee News पर प्रसारित किया जाएगा. पेश है इंटरव्यू के मुख्य अंश:

सुधीर चौधरी: आप 18 साल तक माय लॉर्ड रहे और माय लॉर्ड से मिस्टर गोगोई का ये जो सफर है. अब लोग आपको मिस्टर गोगोई, सांसद गोगोई कहते हैं तो ये सफर कैसा रहा?

जस्टिस गोगोई: ये सवाल मुझसे पहली बार किसी पत्रकार ने पूछा है. वैसे सुधीर जी मैं टीवी में कम आता हूं लेकिन किताब लिखने के बाद मैंने दो-तीन टीवी इंटरव्यू दिए हैं. इसका कारण है कि मैं किताब पब्लिक डोमेन में लाया. बहुत सारी चीजें पब्लिक डोमेन में लाया और बहुतों का बहुत सवाल या प्रश्न हो सकते हैं. इसलिए आपके माध्यम से सवालों के उत्तर देना मेरा फर्ज है. लेकिन कई इंटरव्यू में शुरू करते हैं अयोध्या या राफाल, सेक्सुअल हैरेसमेंट, राज्यसभा. आप पहले हैं, जिन्होंने कहा आपकी जिंदगी का दौर कैसा रहा. मैं इस सवाल के लिए बहुत थैंकफुल हूं.

सुधीर चौधरी: धन्यवाद सर, हम आपको और बेहतर ढंग से जानना चाहते हैं और जब आप एक माय लॉर्ड से इस जीवन में प्रवेश करते हैं तो वो भी एक बदलाव हुआ होगा, जो आपको भी महसूस हुआ होगा.

जस्टिस गोगोई: मेरे किताब में बैक साइड पर लिखा है सुधीर जी. यहां पर लिखा है essentially a family man is something about wanting, who has also kept a low profile away from the limelight.

सुधीर चौधरी: और आज आप लाइमलाइट में हैं.

जस्टिस गोगोई: लाइमलाइट सिर्फ माय लॉर्ड कहने से नहीं बनता है. 18-19 साल के माय लार्ड के कार्यकाल में मैंने बहुत ही साधारण फैमिली लाइफ जी है और अभी माय लॉर्ड हट जाने पर मुझे कोई भी परेशानी नहीं है. लोगों से मिलना, पब्लिक में शामिल होना, मीटिंग पर भाषण देना, मुझे कोई परेशानी नहीं है. मैं इसे पसंद करता हूं क्योंकि मैं लोगों के बीच में फ्री होकर जा सकता हूं, उनसे बात कर सकता हूं. ये जीवन का एक चरण है. जीवन का दूसरा दौर है जो अलग है. ये उतना ही जरूरी, उतना ही अच्छा है.

सुधीर चौधरी: क्या आप खुद को स्वतंत्र महसूस कर रहे हैं पोस्ट मायलॉर्ड इरा में?

जस्टिस गोगोई: नहीं ये कोई लिबरेटेड फीलिंग की बात नहीं है. लिबरेटेड तो हम हमेशा थे. जज थे तब भी लिबरेटेड हैं. अब भी फ्री हैं तो इंडिपेंडेंट हैं. वैसे कुछ खास परेशानी और बदलाव मैंने महसूस नहीं किया है.

सुधीर चौधरी: आज ये  बुक मेरे पास है आपकी. उसका टाइटल आपने दिया है, जस्टिस फॉर द जज, अब जज तो पूरे जीवन लोगों को जस्टिस देता है. आपने जीवन भर लोगों को न्याय दिया और इसके टाइटल से लगता है कि अब जज ही शायद न्याय मांग रहा है?

जस्टिस गोगाई: नहीं, नहीं..कोई न्याय नहीं मांगा गया है. किताब में ये डिस्क्रिप्शन है, किताब के माध्यम से हम लोगों तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं. अपने जजेस को दूसरे ढंग से देखो. अपने जजेस को जज मत करो. जज को सरकारी नौकर या पॉलिटिशिन की तरह मत देखो. ये जज की पोजिशन थोड़ी अलग होती है. जज की कुर्सी पर जो बैठते हैं, उनका अनुशासन होता है. वो बोलते नहीं हैं. आप एक जज की जितनी भी आलोचना करेंगे. उनके फैसलों की आलोचना करेंगे. उनके जजमेंट पर आप कितना भी कीचड़ उछालो, वो बोलता नहीं है. वो जवाब नहीं देता है.

लेकिन एक पॉलिटिशन जवाब देता है. पब्लिक फोरम में जवाब देता है. लेकिन जज चुप रहता हैं. इसका मतलब ये है कि वो न्यायिक अनुशासन का पालन कर रहे हैं, इसका आप फायदा मत लो. आप कमजोरी मत समझो कि आप कुछ भी बोले जाओ क्योंकि अगर आप इसको सही ढंग से नहीं देखोगे तो आप जज को तो नुकसान कर ही रहे हो, आप इंस्टिट्यूशन और न्याय व्यवस्था को भी नुकसान पहुंचा रहे हो. इस किताब में ये मैसेज है.

सुधीर चौधरी: तो मैं एक नया सवाल जोड़ रहा हूं क्योंकि आपने ऐसा कहा. आपको अपने कार्यकाल में कभी ऐसा लगा है? अखबार में आपके बारे में, आपके फैसलों के बारे में भी छपता रहता है, कभी अच्छा कभी खराब. ज्यादातर खराब क्योंकि मीडिया का नेचर है नेगेटिव पॉइंट्स को पहले पकड़ना, क्या आपको कभी घुटन हुई कि आप कुछ बोल नहीं पा रहे हैं?

जस्टिस गोगोई: नहीं ऐसा नहीं हुआ, जो आपके लिए करना उचित नहीं है, जो आप नहीं कर सकते उसके बारे में सोचना गलत है. फैसलों की आलोचना हेल्दी है क्योंकि ये जज को सीखने का मौका देती है. किस जजमेंट में क्या कमी रह गई, ये जानना जरूरी है that is how judges grow लेकिन आज मीडिया में जो हो रहा है ये पर्सनल अटैक हो रहा है इंडिविजुअल.  कहा जा रहा है कि फलाने जज ने फलाना जजमेंट दिया, इस वजह से ये गलत है. ये फर्क है दोनों का. अगर आप जजमेंट को क्रिटिसाइज करते हैं तो ये सिस्टम के लिए अच्छा है लेकिन अगर आप जज को क्रिटिसाइज करते हैं तो यह सिस्टम के लिए अच्छा नहीं है.

सुधीर चौधरी: जस्टिस गोगोई, जजेस आमतौर पर रिटायरमेंट के बाद बुक भी नहीं लेते.

जस्टिस गोगोई: सुधीर जी, आपने कहा कि मैं मिस्टर गोगोई बन गया और आप मुझे जस्टिस गोगोई कह रहे हैं देखिए 18 साल की आदत. आपको कितनी मुश्किल होता है. हमारे लिए कोई मुश्किल नहीं है. आप मुझे गोगोई बुलाओ, हमें फर्स्ट नेम से बुलाओ, हमें जस्टिस बुलाओ, हमें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता.

सुधीर चौधरी: आई एम फीलिंग लिब्रेटेड एक्चुअली, रंजन जी हम आपसे ये जानना चाहेंगे जजेस आमतौर पर बाद में बुक्स भी नहीं लिखा करते हैं लेकिन आपने अपनी ऑटोबायोग्राफी लिखने का फैसला किया. आप ने ये फैसला क्यों किया कि आप अपनी ऑटोबायोग्राफी लिखेंगे और अपनी कहानी लोगों को बताएंगे?

जस्टिस गोगोई: सुधीर जी मेरे कार्यकाल में कई मुद्दों पर, मेरे जजमेंट पर भी बहुत चर्चा हुई और ये चर्चा मेरे हिसाब से मिस इनफॉरमेशन, आधा सच और गलत तथ्यों पर आधारित थीं. ये किताब उनके लिए है जो सही तथ्य जानने की इच्छा रखते हैं. जिन लोगों के हिसाब से वो बिना मेरा पक्ष सुने सही तथ्य पहले से ही जानते हैं, ये किताब उन के लिए नहीं है. ये किताब उनके लिए है जो सही तथ्य जानना चाहते हैं, ये किताब उनके लिए लिखी गई है.

सुधीर चौधरी: आपने न जाने अपने जीवन में कितने जजमेंट दिए होंगे, न जाने कितनी लंबी-लंबी जजमेंट लिखी होंगी लेकिन जजमेंट लिखने में और किताब लिखने में फर्क क्या है और ये बदलाव आपके लिए कैसा रहा? जजमेंट के बाद ये किताब देखना कैसा अनुभव था आपका और क्या इसे आपने रीडर फ्रेंडली बनाया है?

जस्टिस गोगोई: मुझे ये नहीं पता था कि मैं अपनी किताब को रीडर फ्रेंडली बना सका या नहीं, मैंने कोशिश की है लेकिन मेरी किताब का लास्ट लाइन आप देखिए. मेरी किताब का लास्ट लाइन, पेज नंबर 218, द लास्ट सेंटेंस 218 पेज पर देखिए मैं आपको निकाल देता हूं.

सुधीर चौधरी: “this has been my life, this is my story there are many other secrets opinion and sentiments that I may or may not take to my grave, only time will tell.

जस्टिस गोगोई: जजमेंट लिखना आसान है क्योंकि जज का कोई पक्ष नहीं होता है, कोई ओपिनियन नहीं होती है, कोई पर्सनल इंटरेस्ट नहीं होता है. फैक्ट्स पर केस का जजमेंट होता है. मेरे हिसाब से सबसे आसान काम जजमेंट देना होता है लेकिन किताब और खासकर ऑटोबायोग्राफी जो मेरे बचपन से शुरू हो रही है, 1970 से 50 साल को कंप्रेस करके 200 पेजेज करना. 14 साल पुरानी घटनाओं को याद रखना.जो लास्ट लाइन आपने पढ़कर सुनाई है. इसमें सारी कहानी छिपी है कि किताब-लिखना कितना मुश्किल है. मैं पूरे 100 के 100 सीक्रेट्स या तथ्य आपके पास अभी नहीं लाया. बहुत वजह है, बहुत कारण है उसके तथ्य कभी बाहर आएंगे या नहीं आएंगे, मैं कह नहीं सकता.

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