कुछ ही फिल्में ऐसी होती हैं, जिन्हें देखने के बाद आप देर तक यह सोचते रहते हैं कि अभी जो देखा वह क्या वाकई सच था. रॉकेट्रीः द नंबी इफेक्ट उन्हीं फिल्मों में से है. एक देशप्रेमी जीनियस के साथ बगैर किसी चेहरे वाला सिस्टम कितना बुरा बर्ताव कर सकता है, रॉकेट्री यह दिखाते हुए आपको हैरानी में डाल देती है. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान यानी इसरो के साइंटिस्ट नंबी नारायणन की यह कहानी है. 1960 के आखिरी दशकों में विक्रम साराभाई जैसे महान वैज्ञानिक के सहायक की तरह काम करने वाले नंबी (आर.माधवन) अपने देश के लिए नासा का प्रस्ताव ठुकरा देते हैं. देश में निर्मित रॉकेट अंतरिक्ष में भेजा जा सके, इसके लिए अपने स्तर पर तमाम जरूरी चीजें और तकनीक अलग-अलग देशों से जुटा कर विकास इंजन बनाते हैं और अचानक एक दिन पाते हैं कि उन पर देश के खुफिया राज पाकिस्तान को बेचने का आरोप लगता है. पुलिस उन्हें उठा ले जाती है. उन्हें और परिवार को जलील किया जाता है. सामाजिक बहिष्कार होता है. उसे देशद्रोही कहते हुए बुरी तरह से टॉर्चर किया जाता है.
फिल्म ने क्या किया
आगे की कहानी यही है कि जीनियस हार नहीं मानते. नंबी लंबी लड़ाई लड़ते हैं. आखिरकार सुप्रीम कोर्ट से उन्हें क्लीन चिट मिलती है. केरल सरकार को उन्हें मुआवजा देने का आदेश होता है. अंततः ऐसी सरकार आती है, जो भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम में उनके योगदान को स्वीकार करते हुए उन्हें देश श्रेष्ठ के नागरिक पद्म सम्मान से नवाजती है. लेकिन सवाल यह कि क्या ये चीजें उस जीनियस का समय लौटा सकती हैं, उसके अपमान को धो सकती है. आर. माधवन ने यह फिल्म नहीं बनाई होती तो जो नंबी नारायणन के साथ हुआ, वह इतने विस्तृत और विश्वसनीय ढंग से लोगों के सामने आ पाता.
वन मैन शो
रॉकेट्रीः द नंबी इफेक्ट आपको सिनेमा की ताकत बताती है. इस बढ़िया प्रयास में आर.माधवन ने एक साथ कई भूमिकाएं निभाई हैं. निर्माता-निर्देशक-लेखक और अभिनेता. अभिनय में भी वह नंबी नारायणन के अलग-अलग गेट-अप में नजर आते हैं. यह वन मैन शो है. फिल्म का कंटेंट अपने आप में मजबूत है. लेकिन हिंदी में इसे देखते हुए संवाद-भाषा के स्तर पर उन दर्शकों का ध्यान रखा जाता तो बेहतर होता, जो अंग्रेजी नहीं जानते. साथ ही फिल्म के पहले हिस्से में रॉकेट साइंस की तकनीकी शब्दावली और कुछ बातें उतनी सहजता से नहीं आ पाई हैं, जितनी आम आदमी समझ सके. इसके बावजूद फिल्म के इरादों में कोई कमी नहीं है और इसमें संदेह नहीं कि इस दौर में हमें ऐसे सिनेमा की जरूरत है. जब देशप्रेमी और देशद्रोही होने के प्रमाणपत्र सोशल मीडिया में बांटे जा रहे हों.
माधवन का जुनून
माधवन का शोध इस कहानी में दिखाई पड़ता है. नंबी नारायणन की उपलब्धियों और उनके साथ हुए गलत बर्ताव को उन्होंने ईमादारी से उतारा है. इसी वजह से फिल्म की पटकथा में विस्तार और ढाई घंटे की यह फिल्म कुछ लंबी मालूम पड़ती है. कुछ दृश्यों को संपादित किया जा सकता था. तकनीकी रूप से फिल्म मजबूत है. निर्देशक के रूप में माधवन की पहली फिल्म है और इसमें उनका जुनून साफ झलकता है. उन्होंने फिल्म के हर डिपार्टमेंट में बारीक बातों का खयाल रखा. फिल्म में टीवी जर्नलिस्ट के रूप में शाहरुख खान की मौजूदगी अच्छी लगती है और वह कहीं भी अपने स्टारडम के साथ हावी होने की कोशिश नहीं करते. पर्दे के पत्रकार को इतने विनम्र रूप में देख कर भी आप चकित हो सकते हैं. सभी कलाकार अपने किरदारों में सटीक है.
अंत में शॉक्ड
पहले हिस्से में फिल्म तकनीकी शब्दावली की वजह से आपको खुद उससे कनेक्ट होने की कोशिश करना पड़ती है. जबकि दूसरे में खुद पर लगे आरोपों के विरुद्ध नंबी और उनके परिवार का संघर्ष सहज ही आपको उनसे जोड़ देता है. आगे बढ़ते हुए फिल्म का असर भी बढ़ता है. इस फिल्म को आप पारंपरिक सिनेमा की तरह नहीं देख सकते. फिल्म खत्म होने के बाद आप खामोश बैठे रहना चाहते हैं. जब आप देश से प्यार करते हैं तो फिल्म देख कर ‘शॉक्ड’ भी महसूस करते हैं. सिर्फ आम लोगों को नहीं, बल्कि प्रशासन और सत्ता में बैठे लोगों को भी यह फिल्म देखनी चाहिए.
निर्देशकः आर.माधवन
सितारेः आर.माधवन, सैम मोहन, रजित कपूर, विनसेंट रियोटा, सिमरन, शाहरुख खान
रेटिंग ***1/2