राजनांदगांव (दैनिक पहुना)। जैन संत श्री हर्षित मुनि ने कहा कि बाणों की शैया में सोए भीष्म पितामह ने कौरव और पांडव के बीच कहा था कि उन्होंने जो पाप किया है वह उन्हें पीड़ा दे रही है। कौरव और पांडवों ने पूछा था कि आपने तो कोई पाप नहीं किया है फिर यह पाप आपसे कहां और कब हुआ? तब उन्होंने कहा था कि यह पाप द्रौपदी के चीरहरण को रोकने की कोशिश नहीं करने के कारण हुआ। यही पाप उन्हें पीड़ा दे रही है। जैन संत ने कहा कि हमें भी पीड़ा होती है किंतु अपने पापों के लिए नहीं बल्कि अन्य कारणों से। उन्होंने कहा कि अंतिम समय में हमारा द्वारा किया गया पाप हमें बहुत दुख देता है।
समता भवन में आज जैन संत ने अपने नियमित प्रवचन में कहा कि पाप रूपी शूल ( कांटा ) को भीतर से आलोचना कर बाहर निकाल दीजिए। उन्होंने कहा कि पाप इतना असरकारक नहीं होता जितना पाप को छुपाने के लिए किए जा रहे प्रयास असरकारक होते हैं। उन्होंने कहा कि संथारा लेते समय भी आपने अपने पाप को छुपाया तो आपका मरण पंडित मरण नहीं हो सकता। पंडित मरण के लिए यह जरूरी है कि आप संथारा लेते समय गुरु के सामने अपने द्वारा किए गए पाप की आलोचना करें। उन्होंने कहा कि यदि आपको कांटा लगा है तो उसे बाहर निकालिए अन्यथा वह आपको पीड़ा ही देगी। छोटे-छोटे पाप को अगर हम आलोचना कर बाहर नहीं निकलते तो यह हमें चुभते ही रहेगा। पाप यदि निकल गया तो हम अपनी नजरों में ऊंचे हो जाते हैं। छोटे-छोटे पाप की आलोचना नहीं करने से जीवन भर की अराधना व्यर्थ चली जाती है।
संत श्री ने फरमाया कि उपदेश देना और उसे सुनना बहुत सरल है किंतु उसका पालन करना बहुत कठिन होता है। उन्होंने कहा कि हमने कई बार साधुता प्राप्त की किंतु मोक्ष प्राप्त नहीं कर सके। इसके पीछे कारण यही है कि हमने अपने पापों की आलोचना नहीं की। भीतर का मान हमें प्रायश्चित करने से रोकता है। पाप और प्रायश्चित के बीच की कड़ी है आलोचना। उन्होंने कहा कि अपने पापों की आलोचना कर अपने भीतर के पाप रूपी दाग को बाहर निकालिए और आराधना कर आगे बढ़ें।