पाप करने में शर्म आनी चाहिए, उसे प्रकट करने में नहीं – हर्षित मुनि

 

साधना न केवल मन के विकार को निकालती है बल्कि पारदर्शी भी बनाती है

राजनांदगांव (दैनिक पहुना)। जैन संत श्री हर्षित मुनि ने कहा कि हमें पाप कर्म में शर्म आनी चाहिए ना कि उसे प्रकट करने और उसकी आलोचना करने में। उन्होंने कहा कि हमें जिस चीज को करने में शर्म आनी चाहिए, हम उसे ही करते हैं और जिस चीज को करने में शर्म नहीं आनी चाहिए ,उस चीज को करने में हम शर्म करते हैं। उन्होंने कहा कि पाप कर्म को गुरु के सामने में प्रगट करने में नहीं शर्माना चाहिए। गुरु के सामने में पाप प्रगट करने में नहीं शर्माना चाहिए।

संत श्री हर्षित मुनि ने आज समता भवन में अपने नियमित प्रवचन के दौरान कहा कि हम शर्माते हैं कि हमारा पाप प्रगट ना हो जाए और यही सोच हम गुरु के सामने ने पाप की आलोचना नहीं करते। हमें पाप की आलोचना कर पाप मुक्त होना चाहिए। क्षमा याचना तभी सार्थक हो सकती है जब पाप की आलोचना करें। पाप प्रगट करने पर सद्गुरु का भाव कभी नहीं बदलता क्योंकि वे जानते हैं कि सामने वाला व्यक्ति अपने पाप की आलोचना कर रहा है, वह व्यक्ति सरल और सधार्मिक है। उसे अपने द्वारा किए गए पाप की आत्मग्लानि हो रही है। उन्होंने कहा कि साधना मन के विकार को ही दूर नहीं करती बल्कि व्यक्ति को पारदर्शी भी बना देती है। बिरले से बिरले व्यक्ति के ही मन में भाव आता है कि वह अपने पाप की आलोचना करे। उन्होंने कहा कि आपने जब पाप किया तो आपको समझ नहीं थी किंतु समझ आने के बाद उस पाप को साफ करने के लिए गुरु के सामने उसकी आलोचना अवश्य करें। यदि आलोचना नहीं की तो यह पाप आपको भविष्य में भी सताते रहेगा।

संत श्री ने आगे फरमाया कि व्यक्ति के भीतर का अहम व्यक्ति को मारता है। अहम की वजह से व्यक्ति अपने पाप को प्रकट नहीं करना चाहता। उसे डर रहता है कि ऐसा करने से उसकी मान मर्यादा पर इसकी आंच आएगी। उन्होंने कहा कि पाप हुआ है तो उसकी आलोचना भी होनी चाहिए ताकि यह पाप आगे उसे न सताए। भविष्य में हमसे पाप ना हो इसका प्रयास करें।

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