CJI DY Chandrachud On Aligarh Muslim University: चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के कार्यकाल का आज अंतिम दिन है। सीजेआई 10 नवंबर को रिटायर हो रहे हैं। इलसे पहले अपने कार्यकाल से लास्ट वर्किंग डे पर आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (Aligarh Muslim University) के अल्पसंख्यक दर्जे पर ऐतिहासिक फैसला सुनाएंगे। इस मामले में सात जजों की पीठ ने आठ दिन सुनवाई कर एक फरवरी को फैसला सुरक्षित रखा था। अब नौ महीने बाद इसका फैसला आएगा।
प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ फैसला सुनाएगी। पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा भी शामिल हैं। उन्होंने आठ दिन तक दलीलें सुनने के बाद एक फरवरी को इस सवाल पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) यह तय करेगा कि संविधान के अनुच्छेद-30 के तहत किसी शैक्षणिक संस्थान को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने के मानदंड क्या हैं। सर्वोच्च अदालत यह भी तय करेगी कि क्या संसदीय कानून द्वारा निर्मित कोई शैक्षणिक संस्थान संविधान के अनुच्छेद 30 के अंतर्गत अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त कर सकता है।
क्या है इतिहास और क्या है विवाद?
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना 1875 में सर सैयद अहमद खान द्वारा ‘अलीगढ़ मुस्लिम कॉलेज’ के रूप में की गई थी, जिसका उद्देश्य मुसलमानों के शैक्षिक उत्थान के लिए एक केंद्र स्थापित करना था। बाद में, 1920 में इसे विश्वविद्यालय का दर्जा मिला और इसका नाम ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’ रखा गया। एएमयू अधिनियम 1920 में साल 1951 और 1965 में हुए संशोधनों को मिलीं कानूनी चुनौतियों ने इस विवाद को जन्म दिया। सुप्रीम कोर्ट ने 1967 में कहा कि एएमयू एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी है। लिहाजा इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता. कोर्ट के फैसले का अहम बिंदू यह था कि इसकी स्थापना एक केंद्रीय अधिनियम के तहत हुई है ताकि इसकी डिग्री की सरकारी मान्यता सुनिश्चित की जा सके। अदालत ने कहा कि अधिनियम मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रयासों का परिणाम तो हो सकता है लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि विश्वविद्यालय की स्थापना मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने की थी।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2005 में संशोधन को किया खारिज
सर्वोच्च अदालत के इस फैसले ने एएमयू की अल्पसंख्यक चरित्र की धारणा पर सवाल उठाया। इसके बाद देशभर में मुस्लिम समुदाय ने विरोध प्रदर्शन किए जिसके चलते साल 1981 में एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा देने वाला संशोधन हुआ। साल 2005 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 1981 के एएमयू संशोधन अधिनियम को असंवैधानिक करार देते हुए इसे रद्द कर दिया। 2006 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दी फिर 2016 में केंद्र ने अपनी अपील में कहा कि अल्पसंख्यक संस्थान की स्थापना एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के सिद्धांतों के विपरीत है। साल 2019 में तत्कालीन CJI रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने मामले को सात जजों की बेंच के पास भेज दिया था। आज इस पर फैसला आने वाला है।
1920 में यूनिवर्सिटी में हुआ था तब्दील
वर्षों बाद 1920 में, यह ब्रिटिश राज के तहत एक यूनिवर्सिटी में तब्दील हो गया. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता जैसे अन्य लोगों ने तर्क दिया कि केंद्र से भारी धनराशि प्राप्त करने वाला और राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित होने वाला यूनिवर्सिटी किसी विशेष धार्मिक संप्रदाय से संबंधित होने का दावा नहीं कर सकता। उन्होंने यह भी तर्क दिया था कि 1951 में एएमयू अधिनियम में संशोधन के बाद जब मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज को यूनिवर्सिटी में बदला गया और उसने केंद्र सरकार से धन प्राप्त करना शुरू कर दिया, तो संस्थान ने अपना अल्पसंख्यक चरित्र त्याग दिया।